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देवभूमि में लगी इस आग का जिम्मेदार कौन?

"Ek Kona"
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pahad1

यूं तो पहाड़ों में गर्मी शुरू होते ही हर साल जंगलों में आग लग जाती है, लेकिन इस बार की आग ने वाकई में रौद्र रुप धारण कर लिया, और ऐसा रुप धरा कि उत्तराखंड के अधिकांश जिले इसकी चपेट में हैं और शायद इसी कारण यह राष्ट्रीय मीडिया में छाया आ गया है।  यूं तो आग लगने के कई कारण हो सकते हैं जैसा मीडिया भी बता रहा है लेकिन कुछ ऐसे वास्तविक कारण हैं, जिनके कारण गर्मियों में आग का खतरा हमेशा बना रहता है। पहाड़, विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र चीड़ के जंगलों से भरा है और चीड़ की पत्तियां जिन्हें स्थानीय भाषा में पिरूल कहा जाता है, यहीं आग के फैलने का सबसे बड़ा कारण बनती हैं।
दरअसल चीड़ के पेड़ के भले ही कुछ फायदे हों लेकिन इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। फायदे में देखा जाए तो चीड़ की लकड़ी फर्नीचर के बनाने के काम तो आती ही है और पहाड़ों में घर बनाने में अधिकतर इसी लकड़ी का इस्तेमाल होता है। दूसरा सबसे बड़ा फायदा सरकार के साथ-साथ स्थानीय ठेकदारों और श्रमिकों का है जो इस समय चीड़ के पौधों से लीसे (चीड़ के पेड़ से निकलने वाला एक तरल पदार्थ जो बहुपयोगी होता है) निकलाने का कार्य शुरू करते हैं और यह दिसंबर तक चलता है। लीसा एक ऐसा तरल द्रव्य है जिसमें आग लगने पर पेट्रोल की तरह फैलती है। और चीड़ के नुकसान की बात की जाए तो ये बहुत सारे हैं। पिछले कई सालों में पहाड़ से जितनी तेजी से पलायन हुआ है उतनी ही तेजी से चीड़ के जंगलों में वृद्धि हुई है। चीड़ का पेड ऐसा होता है जहां उग जाए वो मिट्टी की उर्वरा शक्ति खत्म कर देता है, यह अक्सर सूखे या शुष्क भूमि पर उगता है जिसे पानी की जरुरत नहीं होती है बल्कि यह पानी के स्त्रोतों को खत्म करने का काम करता है तथा मिट्टी की पकड़ को भी ढीली कर देता है। इसकी पत्तिया (पिरूल) जहां पड जाए तो वहां घास उगना मुश्किल हो जाता है। गर्मी में तो इसकी पत्तियों में आग इतनी तेजी से फैलती है कि वो भयावह हो जाती है।
पहाड़ो में आग लगने के कई कारण हो सकते हैं, पर एक पहाड़ी निवासी होने के साथ-साथ अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि पहाड़ के जंगलों में हमेशा गर्मियों में आग लगती है। और जो कारण अभी तक मैंने देखे उनमें कुछ प्रमुख कारण हैं:-

पहाड़ की सड़कें हों गांव के रास्ते, सभी कहीं ना कहीं जंगलों से जुड़े हैं और ऐसे में कई बार राह चलते राहगीर बीड़ी या सिगरेट पीते समय बिना ध्यान दिए माचिस की अधजली तिल्ली या अधजली सिगरेट बिड़ी को बिना ध्यान दिए ही फेंक देता है और यहीं कई बार आग की सबसे मुख्यवजह बन जाती है,क्योंकि गर्मियों में हर जगह सूखे की सी स्थिति होती है और अगर पिरूल में थोड़ी सी भी चिंगारी फैल जाए तो वो आग ऐसे पूरे जंगल में फैल जाती है जिस पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है। दूसरा कारण, इस समय में पहाड़ में लोग खेतों की सफाई के साथ-साथ घास के लिए अपनी बंजर पड़ी भूमि सफाई करते हैं और उससे निकलने वाले कूड़े को एकत्र कर कुछ दिन सूखा कर आग लगा देते हैंं, कई बार आग लगाने के समय तेज हवा चलती है जिस कारण आग फैल जाती है और इतनी फैल जाती है कि वो जंगलों का रूख कर लेती है। एक जंगल दूसरे जंगल से जुड़े रहते हैं और हवा के साथ पिरूल होने के कारण आग और भयावह होते हुए कई जंगलों में फैल जाती है। इस आग से जंगलों का नुकसान होने के साथ-साथ वहां रहने वाले जंगली जानवरों को भी होता है जो कई बार रिहायशी क्षेत्रों में आ जाते हैं।

आग लगने से न केवल जंगलों का नुकसान हो रहा बल्कि पहाड़ की आजीविका पर भी फर्क पड़ रहा है, लोगों को अपने जानवरों के लिए चारे की समस्या पैदा होने के साथ , लीसे के श्रमिकों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। पहाड में चीड़ के जंगल भले ही कई लोगों को लीसे और लकड़ी के जरिए रोजगार दे रहे हों लेकिन आग का प्रमुख कारण बनने के साथ-साथ और भी बहुत नुकसान कर रहे हैं। चौड़ी पत्तीदार वाले  बाजं, उतीस जैसे वृक्षों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, जो खेती के लिए उपयोगी होने के साथ पहाडों में जल स्त्रोतों के मुख्यकारण हैं। हम अपने थोड़े से फायदे के लिए अपने भविष्य के साथ खेल रहे हैं और अगर समय रहते हम नहीं चेते तो भविष्य में आग के साथ-साथ पानी के लिए भी और भी हालात बदतर हो सकते हैं।

यूं तो पहाड़ों में गर्मी शुरू होते ही हर साल जंगलों में आग लग जाती है, लेकिन इस बार की आग ने वाकई में रौद्र रुप धारण कर लिया, और ऐसा रुप धरा कि उत्तराखंड के अधिकांश जिले इसकी चपेट में हैं और शायद इसी कारण यह राष्ट्रीय मीडिया में छाया आ गया है।  यूं तो आग लगने के कई कारण हो सकते हैं जैसा मीडिया भी बता रहा है लेकिन कुछ ऐसे वास्तविक कारण हैं, जिनके कारण गर्मियों में आग का खतरा हमेशा बना रहता है। पहाड़, विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र चीड़ के जंगलों से भरा है और चीड़ की पत्तियां जिन्हें स्थानीय भाषा में पिरूल कहा जाता है, यहीं आग के फैलने का सबसे बड़ा कारण बनती हैं।

दरअसल चीड़ के पेड़ के भले ही कुछ फायदे हों लेकिन इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। फायदे में देखा जाए तो चीड़ की लकड़ी फर्नीचर के बनाने के काम तो आती ही है और पहाड़ों में घर बनाने में अधिकतर इसी लकड़ी का इस्तेमाल होता है। दूसरा सबसे बड़ा फायदा सरकार के साथ-साथ स्थानीय ठेकदारों और श्रमिकों का है जो इस समय चीड़ के पौधों से लीसे (चीड़ के पेड़ से निकलने वाला एक तरल पदार्थ जो बहुपयोगी होता है) निकलाने का कार्य शुरू करते हैं और यह दिसंबर तक चलता है। लीसा एक ऐसा तरल द्रव्य है जिसमें आग लगने पर पेट्रोल पर लगी  आग की तरह फैलती है। और चीड़ के नुकसान की बात की जाए तो ये बहुत सारे हैं। पिछले कई सालों में पहाड़ से जितनी तेजी से पलायन हुआ है उतनी ही तेजी से चीड़ के जंगलों में वृद्धि हुई है। चीड़ का पेड ऐसा होता है जहां उग जाए वो मिट्टी की उर्वरा शक्ति खत्म कर देता है, यह अक्सर सूखे या शुष्क भूमि पर उगता है जिसे पानी की जरुरत नहीं होती है बल्कि यह पानी के स्त्रोतों को खत्म करने का काम करता है तथा मिट्टी की पकड़ को भी ढीली कर देता है। इसकी पत्तिया (पिरूल) जहां पड जाए तो वहां घास उगना मुश्किल हो जाता है। गर्मी में तो इसकी पत्तियों में आग इतनी तेजी से फैलती है कि वो भयावह हो जाती है।

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पहाड़ो में आग लगने के कई कारण हो सकते हैं, पर एक पहाड़ी निवासी होने के साथ-साथ अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि पहाड़ के जंगलों में हमेशा गर्मियों में आग लगती है। और जो कारण अभी तक मैंने देखे उनमें कुछ प्रमुख कारण हैं, जैसे- पहाड़ की सड़कें हों गांव के रास्ते, सभी कहीं ना कहीं जंगलों से जुड़े हैं और ऐसे में कई बार राह चलते राहगीर बीड़ी या सिगरेट पीते समय बिना ध्यान दिए माचिस की अधजली तिल्ली या अधजली सिगरेट बिड़ी को बिना ध्यान दिए ही फेंक देता है और यहीं कई बार आग की सबसे मुख्यवजह बन जाती है,क्योंकि गर्मियों में हर जगह सूखे की सी स्थिति होती है और अगर पिरूल में थोड़ी सी भी चिंगारी फैल जाए तो वो आग ऐसे पूरे जंगल में फैल जाती है जिस पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है।

दूसरा कारण, इस समय में पहाड़ में लोग खेतों की सफाई के साथ-साथ घास के लिए अपनी बंजर पड़ी भूमि सफाई करते हैं और उससे निकलने वाले कूड़े को एकत्र कर कुछ दिन सूखा कर आग लगा देते हैंं, कई बार आग लगाने के समय तेज हवा चलती है जिस कारण आग फैल जाती है और इतनी फैल जाती है कि वो जंगलों का रूख कर लेती है। एक जंगल दूसरे जंगल से जुड़े रहते हैं और हवा के साथ पिरूल होने के कारण आग और भयावह होते हुए कई जंगलों में फैल जाती है। इस आग से जंगलों का नुकसान होने के साथ-साथ वहां रहने वाले जंगली जानवरों को भी होता है जो कई बार रिहायशी क्षेत्रों में आ जाते हैं।

आग लगने से न केवल जंगलों का नुकसान हो रहा बल्कि पहाड़ की आजीविका पर भी फर्क पड़ रहा है, लोगों को अपने जानवरों के लिए चारे की समस्या पैदा होने के साथ , लीसे के श्रमिकों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। पहाड में चीड़ के जंगल भले ही कई लोगों को लीसे और लकड़ी के जरिए रोजगार दे रहे हों लेकिन आग का प्रमुख कारण बनने के साथ-साथ और भी बहुत नुकसान कर रहे हैं। चौड़ी पत्तीदार वाले  बाजं, उतीस जैसे वृक्षों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, जो खेती के लिए उपयोगी होने के साथ पहाडों में जल स्त्रोतों के मुख्यकारण हैं। हम अपने थोड़े से फायदे के लिए अपने भविष्य के साथ खेल रहे हैं और अगर समय रहते हम नहीं चेते तो पहाड़ और देवभूमि भविष्य में आग के साथ-साथ पानी के लिए भी और भी हालात और बदतर हो सकते हैं।

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