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साल की अंतिम परीक्षा के तौर पर देखे जा रहे झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में अपेक्षित प्रर्दशन के बाद भारतीय जनता पार्टी और टीम अमित शाह की नजर दिल्ली और बिहार पर आ टिकी है। बीजेपी को लग रहा है कि अब दिल्ली भी दूर नहीं है। और बिहार का गुणा-भाग भी तैयार होने लगा है। बीजेपी ने इन दोनों राज्यों में वह ज़रूर कर दिखाया है जो वह यहां पहले कभी नहीं कर पायी थी, और इस हक़ीक़त से इनकार नहीं किया जा सकता कि सात महीने बाद भी मोदी पर मतदाताओं का भरोसा अभी तक कायम है, क्योंकि बीजेपी के पास मोदी ही एकमात्र ऐसा चेहरा है जिसको आगे (फ्रंट) रख कर बीजेपी हरियाणा, महाराष्ट्र और इन दो राज्यों में आशानुरूप कामयाबी पा सकी है, और पार्टी की यही रणनीति आगामी दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में रहने वाली है।
वहीं दूसरे नजरिये से देखा जाय तो इन चुनावों के नतीजे से बीजेपी के लिए भी एक खतरे की घंटी है क्योंकि बीजेपी जहां कश्मीर में मिशन 44+ को पूरा नहीं कर पायी और घाटी में तो वो खाता तक खोलने में असफल रही। वहीं झारखंड में अपने दम पर बहुमत प्राप्त नहीं कर पायी। जहां बीजेपी नहीं, बल्कि ऑल झारखंड स्टुडेंट यूनियन (आझास्यू) के साथ हुआ बीजेपी गठबंधन जीता है। अगर ऐसा नहीं होता तो झारखण्ड में जहाँ बीजेपी ने सिर्फ छह-सात महीने पहले लोकसभा चुनावों के दौरान राज्य की 14 सीटों में से 12 सीटें जीती थीं और 57 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी, वहां वह सिर्फ 37 सीटों पर क्यों सिमट जाती? लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्य गठन के बाद आज तक कोई भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और इस बार बीजेपी गठबंधन बहुमत का आंकड़ा छूने में कामयाब रहा। इसी तरह जम्मू-कश्मीर में लद्दाख की लोकसभा सीट जीतने की बावजूद भी क्षेत्र की चार में से एक भी सीट जीतने में नाकामयाब रही, लेकिन बीजेपी के लिए सकून वाली बात यह रही कि वो राज्य में किंगमेकर की भूमिका में आ गयी है। ये बात अलग है कि राज्य की सत्ता से बीजेपी को दूर रखने के लिए नेकां, और कांग्रेस ने पीडीपी को समर्थन देने की घोषणा कर दी है लेकिन पीडीपी बीजेपी को लेकर अभी भी ऊहापोह की स्थिति में है।
नतीजे चाहे जो भी रहे हों लेकिन इनका सीधा असर अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों में पर पड़ेगा। जिसकी पहली प्रयोगशाला फरवरी (संभावित) में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव होगें। दिल्ली में बीजेपी ज्यादा लाभ की स्थिति में नहीं रहेगी क्योंकि यहां उसे आम आदमी पार्टी (आप) से लगभग बराबरी की टक्कर मिलती दिख रही है। इसी तरह अगले साल अक्तूबर-नवम्बर में बिहार विधानसभा चुनावों में भी उसे महागठबंधन से मुकाबला करना होगा। जिसकी तैयारी के लिए लालू, नीतीश और अन्य क्षत्रप दिन-रात एक किये हुए हैं।
कुल मिलाकर इन चुनावों ने एक बार फिर यह साफ़ कर दिया कि विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों और नेताओं के अलावा स्थानीय मुद्दें, स्थानीय नेता और उम्मीदवार ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।
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