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लोकपाल, आरक्षण , और जनान्दोलन !.. भविष्य क्या?

"Ek Kona"
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पिछले कुछ समय से देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे सख्त माहौल के बावजूद ऐंटी-करप्शन बिल को लेकर पॉजिटिव रुख बनता नहीं दिख रहा है। और, करप्ट लोग इस बिल पर यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं.जिस तरह मुसलमानों को आरक्षण देने की बात ऐन चुनाव से पहले सरकार को याद आई, ठीक वैसे ही यह क्यों हुआ कि अन्ना का समूचा अराजनैतिक दिखता आंदोलन अचानक कांग्रेस विरोध की शक्ल लेने लगा। लोकपाल बिल में आरक्षण के मामले पर बीजेपी ही नहीं, अन्ना टीम भी बहुत कुछ विरोध में कहना चाहती है, लेकिन अगर यह पूछा जाए कि इन्होंने महिलाओं और पिछड़ों के लिए आरक्षण की बात खुद क्यों नहीं उठाई? भ्रष्टाचार पर सभी नेता बड़े बड़े भाषण जरूर देते हैं, लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि जितना यह राजनैतिक क्षेत्र में फैला है उतना और कहीं नहीं है। कौन नहीं जानता कि पिछड़ों की मदद की जानी जरूरी है, लेकिन यह काम बड़े स्तर पर सरकार ही कर सकती है। लेकिन क्या हमारी सरकार ने सोचा भी है कि असल बराबरी अवसरों की समानता से मिलती है? अवसर जो बड़े हो कर ही नहीं, बचपन से मिलने चाहिए। खान-पान और शिक्षा से प्रारंभ हाने वाले इन अवसरों की एक जीवन स्तर तक लंबी फेहरिस्त हो सकती है। आरक्षण दे देने भर से अगर समानता आ जाती तो यह काम बहुत आसान हो जाता। संविधान बाकायदा कहता है कि आरक्षण देने के कितने समय बाद इस पर विचार होना चाहिए। ऐसा करते हुए हम अपनी व्यवस्था की समीक्षा भी कर सकते हैं। आजादी के इतने बरस बाद भी हमारी राजनैतिक पार्टियां सिर्फ आरक्षण देने पर विचार करती नजर आती हैं। खासकर यूपी चुनावों से ठीक पहले ऐसा कदम उठाना तो और भी परेशान करने वाला है। आरक्षण देना ही था तो इसकी याद पहले क्यों नहीं आई? साफ है कि भ्रष्टाचार अच्छी नीतियों और नीयत से ही खत्म हो सकता है। इसके लिए हमें देश में फैले भ्रष्टाचार के अनेक पहलुओं पर गौर करना होगा। जैसे लोकपाल से सब कुछ ठीक हो जाने की कोई गारंटी नहीं है, वैसे ही आरक्षण दे देने से भी समानता आ ही जाएगी यह मानना आसान नहीं है। इसके लिए तो गरीबी दूर करने जैसे बड़े कदम उठाने जरूरी हैं।

अन्ना टीम अपनी मांगों को लेकर शुरू से ही अटल रही है, यह तो सिर्फ सरकार है जो अपना पाला बदल रही है! कभी सरकार कहती है कि हां सहमत हैं, कभी कहती है, नहीं हैं, कभी कहती है हां हैं तो सही लेकिन यह मांग नहीं मानेंगे, केवल वह मानेंगे या फिर ऐसे करें या वैसे करें। अक्सर वह अपना पाला माहौल की नजाकत को देखते हुए आखिरी पल पर तुरंत बदल लेती है। सीबीआई पर सरकार का एकदम पलट जाना यही तो है। शरद यादव को सुन रहा था जिसमे अगर लोकपाल आ गया तो नेताओ का डर साफ दिख रहा था -“शरद यादव अगर मजबूत लोकपाल बन गया तो उसके नाम पर अफसरशाही नेताओं की बात नहीं सुनेगी। जब अफसरशाही नेताओं की बात नहीं सुनेगी तो बेचारे नेताओं के पास काम क्या रह जायेगा! अरे साहब, नेता अगर सरकारी अफसरों और कर्मचारियों से काम नहीं करा पाये तो संसद पर ताला लग जायेगा।” लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में बोलते हुए सुना। वह भड़के हुए थे। वह इस बात पर नाराज़ थे कि केंद्र की यूपीए सरकार अन्ना हजारे नाम के एक इंसान के आंदोलन से डरकर एक ऐसा बिल ला रही है जिससे संसद के कानून बनाने के एकाधिकार पर आंच आती है। उनके अनुसार कानून बनाने का अधिकार संसद को है और सड़कों पर होनेवाले आंदोलनों के दबाव में उसे नहीं आना चाहिए। वह कांग्रेस सरकार से पूछ रहे थे कि आखिर वह क्यों अन्ना हजारे से इतना डर रही है कि आनन-फानन में लोकपाल बिल ला रही है।लालू लोकपाल बिल का विरोध कर रहे थे इस पर हैरत नहीं हुई।रामविलास पासवान, लालू, मुलायम, मायावती, जैसे नेताओं से हम उम्मीद कर ही कैसे सकते थे कि वे एक ऐसे बिल का समर्थन करेंगे जिससे उनकी गरदन फंसने की रत्ती भर भी आशंका हो। उनके लिए तो मौजूदा व्यवस्था बहुत बढ़िया है जहां करोड़ों के घपले करने के बाद भी आज वे लोकसभा के माननीय सांसद या किसी राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हैं। देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी कमाल की है कि महंगे वकीलों के बल पर ये सारे नेता अपने खिलाफ चल रहे मामलों को सालोंसाल खींच सकते हैं, खींच रहे हैं और अदालतों से बरी होकर निकल रहे हैं। तो फिर ऐसे नेता ऐसा लोकपाल क्यों बनने देंगे जो छह महीने में उन्हें अंदर कर दे.
जिस तरह से संसद मे ” माननीय नेतागड़ो” के बयानबाजी हो रही है , उससे तो यहि प्रतित हो रहा है कि लोकपाल एक “जोकपाल” ना बनकर ना रह जाए ।

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